कबीर के दोहे | Kabir Ke Dohe in hindi :->कबीर जी 15 सदी के के भारतीय मूल के संत अथवा कवि था | इनके बताये हुए भक्ति के पथ पर लोग आज व चलते है |
कबीर के दोहे | Kabir Ke Dohe in hindi
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय
आछे पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार
जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख
माँगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन.
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत