कार्तिक मास माहात्म्य कथा | kartik mahatmya adhyay 19 :->jai shree hari
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कार्तिक मास माहात्म्य कथा | kartik mahatmya adhyay 19
कार्तिक मास माहात्म्य कथा | kartik mahatmya adhyay 19 :->राजा पृथु ने कहा – हे मुनिश्रेष्ठ! आपने कलहा द्वारा मुक्ति पाये जाने का वृत्तान्त मुझसे कहा जिसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना. हे नारदजी! यह काम उन दो नदियों के प्रभाव से हुआ था, कृपया यह मुझे बताने की कृपा कीजिए.
नारद जी बोले :-
हे राजन! कृष्णा नदी साक्षात भगवान श्रीकृष्ण महाराज का शरीर और वेणी नामक नदी भगवान शंकर का शरीर है. इन दोनों नदियों के संगम का माहात्म्य श्रीब्रह्माजी भी वर्णन करने में समर्थ नहीं है फिर भी चूंकि आपने पूछा है इसलिए आपको इनकी उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनाता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो|
चाक्षसु मन्वन्तर के आरम्भ में ब्रह्माजी ने सह्य पर्वत के शिखर पर यज्ञ करने का निश्चय किया. वह भगवान विष्णु, भगवान शंकर तथा समस्त देवताओं सहित यज्ञ की सामग्री लेकर उस पर्वत के शिखर पर गये. महर्षि भृगु आदि ऋषियों ने ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें दीक्षा देने का विचार किया. तत्पश्चात भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी की भार्या त्वरा को बुलवाया. वह बड़ी धीमी गति से आ रही थी. इसी बीच में भृगु जी ने भगवान विष्णु से पूछा – हे प्रभु! आपने त्वरा को शीघ्रता से बुलाया था, वह क्यों नहीं आई? ब्रह्ममुहूर्त निकल जाएगा.|
इस पर भगवान विष्णु बोले –
यदि त्वरा यथासमय यहाँ नहीं आती है तो आप गायत्री को ही स्त्री मानकर दीक्षा विधान कर दीजिएगा. क्या गायत्री पुण्य कर्म में ब्रह्माजी की स्त्री नहीं हो सकती?
नारदजी ने कहा –
हे राजन! भगवान विष्णु की इस बात का समर्थन भगवान शंकर जी ने भी किया. यह बात सुनकर भृगुजी ने गायत्री को ही ब्रह्माजी के दायीं ओर बिठाकर दी़क्षा विधान आरंभ कर दिया. जिस समय ऋषिमण्डल गायत्री को दीक्षा देने लगा, उसी समय त्वरा भी यज्ञमण्डल में आ पहुँची.
ब्रह्माजी के दायीं ओर गायत्री को बैठा देखकर ईर्ष्या से कुपित होकर त्वरा बोली – जहाँ अपूज्यों की पूजा और पूज्यों की अप्रतिष्ठा होती है वहाँ पर दुर्भिक्ष, मृत्यु तथा भय तीनों अवश्य हुआ करते हैं. यह गायत्री ब्रह्माजी की दायीं ओर मेरे स्थान पर विराजमान हुई है इसलिए यह अदृश्य बहने वाली नदी होगी. आप सभी देवताओं ने बिना विचारे इसे मेरे स्थान पर बिठाया है इसलिए आप सभी जड़ रूप नदियाँ होगें.|
नारदजी राजा पृथु से बोले –
हे राजन! इस प्रकार त्वरा के शाप को सुनकर गायत्री क्रोध से आग-बबूला होकर अपने होठ चबाने लगी. देवताओं के मना करने पर भी उसने उठकर त्वरा को शाप दे दिया. गायत्री बोली – त्वरा! जिस प्रकार ब्रह्माजी तुम्हारे पति हैं उसी प्रकार मेरे भी पति हैं. तुमने व्यर्थ ही शाप दे दिया है इसलिए तुम भी नदी हो जाओ तब देवताओं में खलबली मच गई. सभी देवता त्वरा को साष्टांग प्रणाम कर के बोले – हे देवि! तुमने ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं को जो शाप दिया है वह उचित नहीं है क्योंकि यदि हम सब जड़ रुप नदियाँ हो जाएंगे तो फिर निश्चय ही यह तीनों लोक नहीं बच पाएंगे. चूंकि यह शाप तुमने बिना विचार किए दिया है इसलिए यह शाप तुम वापिस ले लो.
त्वरा बोली – हे देवगण! आपके द्वारा यज्ञ के आरम्भ में गणेश पूजन न किये जाने के कारण ही यह विघ्न उत्पन्न हुआ है. मेरा यह शाप कदापि खाली नहीं जा सकता इसलिए आप सभी अपने अंगों से जड़ीभूत होकर अवश्यमेव नदियाँ बनोगे. हम दोनों सौतने भी अपने-अपने वंशों पश्चिम में बहने वाली नदियाँ बनेगी.|
नारदजी राजा पृथु से बोले –
हे राजन! त्वरा के यह वचन सुनकर भगवान विष्णु, शंकर आदि सभी देवता अपने-अपने अंशों से नदियाँ बन गये. भगवान विष्णु के अंश से कृष्णा, भगवान शंकर के अंश से वेणी तथा ब्रह्माजी के अंश से ककुदमवती नामक नदियाँ उत्पन्न हो गई. समस्त देवताओं ने अपने अंशों को जड़ बनाकर वहीं सह्य पर्वत पर फेंक दिया. फिर उन लोगों के अंश पृथक-पृथक नदियों के रूप में बहने लगे. देवताओं के अंशों से सहस्त्रों की संख्या में पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ उत्पन्न हो गई. गायत्री और त्वरा दोनों पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ होकर एक साथ बहने लगी, उन दोनों का नाम सावित्री पड़ा.
ब्रह्माजी ने यज्ञ स्थान पर भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर की स्थापना की. दोनों देवता महाबल तथा अतिबल के नाम से प्रसिद्ध हुए. हे राजन! कृष्णा और वेणी नदी की उत्पत्ति का यह वर्णन जो भी मनुष्य सुनेगा या सुनायेगा, उसे नदियों के दर्शन और स्नान का फल प्राप्त
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